इतिहास
मध्यप्रदेश का इतिहास "अतुल्य भारत का हृदय

 

किसी देश या राज्य की भौगोलिक स्थिति, उस स्थान की ऐतिहासिक घटनाओं और आर्थिक विकास को बहुत अधिक प्रभावित करती है। यह अपने नागरिकों और उनके व्यवहार के दृष्टिकोण को भी प्रभावित करती है। भौगोलिक रूप से देश के केंद्रीय स्थान पर स्थित मध्यप्रदेश, वास्तव में भारत के हृदय समान है।

अपने केंद्रीय स्थान के कारण इस क्षेत्र पर सभी ऐतिहासिक धाराएं, स्वाभाविक रूप से अपने सुस्पष्ट निशान छोड़ गई। प्रागैतिहासिक काल पत्थर युग से शुरू होता है, जिसके गवाह भीमबेटका, आदमगढ, जावरा, रायसेन, पचमढ़ी जैसे स्थान है। हालांकि राजवंशीय इतिहास, महान बौद्ध सम्राट अशोक के समय के साथ शुरू होता है, जिसका मौर्य साम्राज्य मालवा और अवंती में शक्तिशाली था। कहा जाता है कि राजा अशोक की पत्नी विदिशा से थी, जो आज के भोपाल की उत्तर में स्थित एक शहर था। सम्राट अशोक की मृत्यु के बाद मौर्य साम्राज्य का पतन हुआ और ई. पू. तीन से पहली सदी के दौरान मध्य भारत की सत्ता के लिए शुंग, कुशान, सातवाहन और स्थानीय राजवंशों के बीच संघर्ष हुआ। ई. पू. पहली शताब्दी में उज्जैन प्रमुख वाणिज्यिक केंद्र था। गुप्ता साम्राज्य के दौरान चौथी से छठी शताब्दी में यह क्षेत्र उत्तरी भारत का हिस्सा बन गया, जो श्रेष्ठ युग के रूप में जाना जाता है। हूणों के हमले के बाद गुप्त साम्राज्य का पतन हुआ और उसका छोटे राज्यों में विघटन हो गया। हालांकि, मालवा के राजा यशोधर्मन ने ई. सन 528 में हूणों को पराभूत करते हुए उनका विस्तार समाप्त कर दिया। बाद में थानेश्वर के हर्षा ने अपनी मृत्यु से पहले ई.सन 647 तक उत्तरी भारत को फिर से एक कर दिया। मध्ययुगीन राजपूत काल में 950 से 1060 ई.सन के दौरान मालवा के परमरस और बुंदेलखंड के चंदेल जैसे कुलों का इस क्षेत्र पर प्रभुत्व रहा। भोपाल शहर को नाम देनेवाले परमार राजा भोज ने इंदौर और धार पर राज किया। गोंडवना और महाकौशल में गोंड राजसत्ता का उदय हुआ। 13 वीं सदी में, दिल्ली सल्तनत ने उत्तरी मध्यप्रदेश को हासील किया था, जो 14 वीं सदी में ग्वालियर की तोमर और मालवा की मुस्लिम सल्तनत (राजधानी मांडू) जैसे क्षेत्रीय राज्यों के उभरने के बाद ढह गई।
 
1156-1605 अवधि के दौरान, वर्तमान मध्यप्रदेश का संपूर्ण क्षेत्र मुगल साम्राज्य के तहत आया, जबकि गोंडवाना और महाकौशल, मुगल वर्चस्व वाले गोंड नियंत्रण के तहत बने रहे, लेकिन उन्होने आभासी स्वायत्तता का आनंद लिया। 1707 में औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगल नियंत्रण कमजोर हो गया, जिसके परिणाम स्वरूप मराठों ने विस्तार करना शुरू किया और 1720-1760 के बीच उन्होने मध्यप्रदेश के सबसे अधिक हिस्से पर नियंत्रण स्थापित कर लिया। इंदौर में बसे अधिकतर मालवा पर होलकर ने शासन किया, ग्वालियर पर सिंधिया ने तथा नागपुर द्वारा नियंत्रित महाकौशल, गोंडवाना और महाराष्ट्र में विदर्भ पर भोसले ने शासन किया। इसी समय मुस्लिम राजवंश के अफगान के जनरल दोस्त मोहम्मद खान के वंशज भोपाल के शासक थे। कुछ ही समय में ब्रिटिशो ने बंगाल, बंबई और मद्रास जैसे अपने गढ़ों से अधिराज्य का विस्तार किया। उन्होने 1775-1818 में मराठों को पराजित किया और उनके राज्यों के साथ संधि कर उनपर सर्वोपरिता स्थापित की। मध्यप्रदेश के इंदौर, भोपाल, नागपुर, रीवा जैसे बड़े राज्यों सहित अधिकांश छोटे राज्य ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन आ गए। 1853 में ब्रिटिशो ने नागपुर के राज्य पर कब्जा कर लिया, जिसमे दक्षिण-पूर्वी मध्यप्रदेश, पूर्वी महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ शामिल था, जो 1861 में मध्य प्रांत के निर्माण हेतु सौगोर और नेरबुड्डा आतंकीयों के साथ जुडे हुए थे। उत्तरी मध्यप्रदेश के राजसी राज्य सेंट्रल इंडिया एजेंसी द्वारा संचालित किए जाते थे।
 

 

1947 में भारत की आजादी के बाद, 26 जनवरी, 1950 के दिन भारतीय गणराज्य के गठन के साथ सैकड़ों रियासतों का संघ में विलय किया गया था। राज्यों के पुनर्गठन के साथ सीमाओं को तर्कसंगत बनाया गया। 1950 में पूर्व ब्रिटिश केंद्रीय प्रांत और बरार, मकाराई के राजसी राज्य और छत्तीसगढ़ मिलाकर मध्यप्रदेश का निर्माण हुआ तथा नागपुर को राजधानी बनाया गया। सेंट्रल इंडिया एजेंसी द्वारा मध्य भारत, विंध्य प्रदेश और भोपाल जैसे नए राज्यों का गठन किया गया। राज्यों के पुनर्गठन के परिणाम स्वरूप 1956 में, मध्य भारत, विंध्य प्रदेश और भोपाल राज्यों को मध्यप्रदेश में विलीन कर दिया गया, तत्कालीन सी.पी. और बरार के कुछ जिलों को महाराष्ट्र में स्थानांतरित कर दिया गया तथा राजस्थान, गुजरात और उत्तर प्रदेश में मामूली समायोजन किए गए। फिर भोपाल राज्य की नई राजधानी बन गया। शुरू में राज्य के 43 जिले थे। इसके बाद, वर्ष 1972 में दो बड़े जिलों का बंटवारा किया गया, सीहोर से भोपाल और दुर्ग से राजनांदगांव अलग किया गया। तब जिलों की कुल संख्या 45 हो गई। वर्ष 1998 में, बड़े जिलों से 16 अधिक जिले बनाए गए और जिलों की संख्या 61 बन गई। नवंबर 2000 में, राज्य का दक्षिण-पूर्वी हिस्सा विभाजित कर छत्तीसगढ़ का नया राज्य बना। इस प्रकार, वर्तमान मध्यप्रदेश राज्य अस्तित्व में आया, जो देश का दूसरा सबसे बड़ा राज्य है और जो 308 लाख हेक्टेयर भौगोलिक क्षेत्र पर फैला हुआ है|

 

मेलों को मध्य प्रदेश की संस्कृति और रंगीन जीवन शैली का पैनोरमा कहा जा सकता है। इन मेलों में आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक रूप का एक अद्वितीय और दुर्लभ सामजस्य दिखाई देता है, जो कहीं और नहीं दिख पाता। अगर संख्या के बारे में देखा जाए, तो सबसे अधिक 227 मेलें, उज्जैन जिले में लगते हैं और होशंगाबाद जिले में आयोजित मेलों की संख्या 13 है। इनमें से अधिकांश मेले मार्च, अप्रैल और मई महीनों के दौरान आयोजित होते है, जब किसानों को खेतों में कम काम करना पडता है। जून, जुलाई, अगस्त और सितंबर महीनों में कम मेलें लगते है, क्योंकी बरसात के मौसम के दौरान किसान व्यस्त रहते हैं।

 

यहाँ ऐसे कुछ मेलों के बारे में संक्षिप्त जानकारी लेते है:

सिंहस्थ

उज्जैन का कुंभ मेला, ‘सिंहस्थ' के नाम से जाना जाता है, जो देश के भव्य और पवित्रतम मेलों में से एक है। यह बहुत ही उच्च धार्मिक मूल्यों वाला मेला है और हर बारह साल के चक्र में एक बार, जब बृहस्पति, राशिचक्र की सिंह राशि में प्रवेश करता है, तब इस मेलें का आयोजन होता है। पवित्र क्षिप्रा नदी के तट पर, पूरी भव्यता का प्रदर्शन करता यह मेला लगता है, जिसमें दुनिया भर के लाखों लोग अपने आध्यात्मिक उन्नयन के लिए शामिल होते हैं। वास्तव में, ‘सिंहस्थ' का आयोजन स्थल होने के साथ उज्जैन के इस प्राचीन शहर को, भारत के बारह ज्येतिर्लिंगों में से एक होने का सम्मान भी प्राप्त है। इसी स्थान पर भगवान श्रीकृष्ण और उनके दोस्त सुदामा ने गुरु सांदिपनी ऋषि से शिक्षा प्राप्त थी। महान कवि कालिदास तथा सांदिपनी और भर्तृहरी जैसे संत भी इसी भूमि से है।

 
रामलीला का मेला

ग्वालियर जिले की भंडेर तहसील में इस मेले का आयोजन किया जाता है। यह मेला 100 से अधिक साल पुराना है, जो जनवरी-फरवरी महीने में लगता है।

 
हीरा भूमियां का मेला

ग्वालियर, गुना और आसपास के क्षेत्रों में ‘हिरामन बाबा' का नाम प्रसिद्ध है। माना जाता है कि हिरामन बाबा के आशीर्वाद से महिलाओं का बांझपन दूर हो जाता है। पिछले कुछ शतकों से हर वर्ष, इस पूरे क्षेत्र में अगस्त और सितंबर के महीनों में हीरा भूमियां का यह मेला लगता है।

 
पीर बुधान का मेला

250 से अधिक साल पुराना यह मेला, शिवपुरी जिले के सनवारा में मुस्लिम संत पीर बुधान की कब्र के पास आयोजित किया जाता है। अगस्त-सितंबर महीनों में इस मेले का आयोजन किया जाता है।

 
नागाजी का मेला

अकबर के समय के संत नागाजी की स्मृति में नवंबर-दिसंबर के दौरान इस मेले का आयोजन किया जाता है। यह मेला, मुरैना जिले के पोर्सा गांव में तकरीबन एक महीने के लिए लगता है। पहले यहां बंदरों को बेचा जाता था, लेकिन अब अन्य घरेलू पशुओं को भी यहां बेचा जाने लगा है।

 
तेताजी का मेला

तेताजी एक सच्चा आदमी था। कहा जाता है कि शरीर से सांप के जहर को दूर करने की शक्ति उसे प्राप्त थी। पिछले 70 वर्षों से गुना जिले के भामावड़ गांव में तेताजी के जन्मदिन पर इस मेले का आयोजन किया जाता है।

 
जागेश्वरी देवी का मेला

अति प्राचीन काल से गुना जिले के चंदेरी में इस मेले का आयोजन किया जाता है। इस मेले का एक किस्सा बताया जाता है, जिसके अनुसार चंदेरी के शासक जागेश्वरी देवी के भक्त थे। उन्हे कुष्ठ रोग था। देवी ने उन्हे 15 दिनों के बाद एक जगह पर आने के लिए कहा, लेकिन राजा तीसरे दिन ही वहां आ गये। उस समय देवी का केवल सिर ही दिखाई दिया। राजा का कुष्ठ ठीक हो गया और उसी दिन से इस मेले की शुरूवात हुई।

 
अमरकंटक का शिवरात्रि मेला

पिछले अस्सी सालों से शहडोल जिले के अमरकंटक में, नर्मदा नदी के उद्गम स्थल पर शिवरात्रि के दिन यह मेला आयोजित किया जाता है।

 
महामृत्यंजय का मेला

रीवा जिले के महामृत्यंजय मंदिर में बसंत पंचमी और शिवरात्रि के दिन यह मेला लगता है।

 
चंडी देवी का मेला

सीधी जिले के घोघरा गाव में चंडी देवी का मंदिर है, जिन्हे देवी पार्वती का अवतार माना जाता है। मार्च-अप्रैल में यह मेला लगता है।

 
शहाबुद्दीन औलिया बाबा का उर्स

मंदसौर जिले के नीमच में फरवरी माह में यह उर्स मनाया जाता है, जो चार दिनों तक चलता है। यहां बाबा शहाबुद्दीन की मजार है।

 
कालूजी महाराज का मेला

पश्चिमी निमर के पिपल्याखुर्द में एक महीने तक यह मेला लगता है। कहा जाता है कि लगभग 200 वर्ष पहले कालूजी महाराज यहाँ अपनी शक्ति से इन्सानों और जानवरों की बीमारी ठीक किया करते थे।

 
सिंगाजी का मेला

सिंगाजी एक गूढ़ आदमी थे और उन्हे देवता माना जाता था। पश्चिमी निमर के पिपल्या गांव में अगस्त-सितम्बर में एक सप्ताह के लिए यह मेला लगता है।

 
धामोनी उर्स

सागर जिले के धामोनी नामक स्थान पर मस्तान शाह वली की मजार पर अप्रैल-मई महिने में यह उर्स लगता है।

 
बरमान का मेला

नरसिंहपुर जिले के गदरवारा में मकर संक्रांति से इस 13 दिवसीय मेले की शुरूवात होती है।

 
मठ घोघरा का मेला

शिवरात्रि के अवसर पर, सिवनी जिले के Bhaironthan में 15 दिनों का यह मेला आयोजित किया जाता है। एक प्राकृतिक झील और गुफा, इस स्थान की सुंदरता को बढाते है।

आलमी तब्लीग़ी इजतिमा

इस तीन दिवसीय मण्डली को भोपाल में सबसे महत्वपूर्ण धार्मिक अवसर के रूप में मनाया जाता है। इज्तिमा हर साल आयोजित किया जाता है और उसके साथ एक मेला भी लगता है। इस इज्तिमा के दौरान पूरे शहर में आध्यात्मिकता की लहर उमडती है और दुनिया भर के मुसलमानों के ‘जामात' (श्रद्धालुओं के समूह) यहाँ आ पहुंचते हैं। रूस, कजाकिस्तान, फ्रांस, इंडोनेशिया, मलेशिया, जाम्बिया, दक्षिण अफ्रीका, केन्या, इराक, सऊदी अरब, यमन, इथियोपिया, सोमालिया, तुर्की, थाईलैंड और श्रीलंका जैसे देशों के 'जामाती' तीन दिनों के शिविर के लिए यहाँ आते है और अच्छे मूल्यों का पालन करते हुए ईमानदार जीवन जीने के लिए इस्लामी विद्वानों की पवित्र उपदेश सुनते हैं। बुद्धिजीवियों, छात्रों, व्यापारियों, किसानों आदि के लिए सार्वभौमिक भाईचारे का संदेश देनेवाले विशेष धार्मिक प्रवचन भी यहां होते हैं। आध्यात्मिक संदेश देनेवाली यह सभा, दुनिया की सबसे बड़ी धार्मिक सभाओं में से एक मानी जाती है, जो न सिर्फ मुसलमानों के लिए बल्की सभी समुदायों के लिए यथार्थ मानी जाती है।

 
खजुराहो नृत्य महोत्सव

अपने पुरातात्विक और ऐतिहासिक महत्त्व के कारण यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर के रूप में नामित, मध्य प्रदेश के प्रसिद्ध खजुराहो मंदिर में, प्रति वर्ष फरवरी-मार्च के महीनों में शास्त्रीय नृत्यों के समृद्ध सांस्कृतिक रूप को देखने के लिए भारत और विदेशों से भीड़ उमडती है। चंदेलों द्वारा निर्मित शानदार वास्तुकला वाले मंदिरों के बीच, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त शास्त्रीय नृत्य का यह खजुराहो नृत्य महोत्सव, देश की सांस्कृतिक विरासत को बढ़ावा देने की दिशा में, आयोजक - मध्य प्रदेश कला परिषद का एक प्रयास है। इस सप्ताह लंबे महोत्सव के दौरान देश के हर हिस्से से लोकप्रिय शास्त्रीय नृत्य के कलाकारों को आमंत्रित किया जाता हैं। जानेमाने श्रेष्ठ कलाकार कथ्थक, कुचिपुड़ी, ओडिसी, भरतनाट्यम, मणिपुरी, और मोहिनीअट्टम जैसे भारतीय शास्त्रीय नृत्यों का प्रदर्शन करते है। परंपरा और आध्यात्मिकता की ताकत इस प्रदर्शन को एक असामान्य और आकर्षक रूप प्रदान करती है। इन नृत्यों में हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की अधिकांश संगत का प्रयोग किया जाता है। खजुराहो नृत्य महोत्सव के दौरान प्रदर्शन करना, भारतीय शास्त्रीय नृत्य कलाकारों के लिए विशेष सम्मान माना जाता है।

 
लोकरंग समारोह

भोपाल में हर साल 26 जनवरी अर्थात गणतंत्र दिवस से पांच दिनों तक चलनेवाला लोकरंग समारोह शुरू होता है। यह मध्य प्रदेश की आदिवासी लोक कला अकादमी द्वारा आयोजित एक सांस्कृतिक प्रदर्शनी है। पूरे देश भर से लोकसंस्कृति और जनजातीय संस्कृति के प्रदर्शन और रचनात्मक पहलुओं को सामने लाने का यह एक प्रयास हैं। लोक नृत्य और जनजातीय नृत्य, शास्त्रीय नृत्य, कला रूपों का प्रदर्शन इस लोकरंग की मुख्य विशेषताएं हैं। विदेशों की प्रस्तुतियों और प्रदर्शनियां भी इस समारोह का एक बड़ा आकर्षण हैं।

 
लोकरंजन महोत्सव

मध्य प्रदेश के पर्यटन विभाग द्वारा खजुराहो में हर साल आयोजित लोकरंजन, लोक नृत्य का एक राष्ट्रीय महोत्सव है। भारत के विभिन्न भागों से लोकप्रिय लोकनृत्य तथा आदिवासी नृत्य और पारंपरिक कारीगरों की आकर्षक रचनाएं और शिल्प प्रदर्शन, इस महोत्सव में शामिल होते हैं। खजुराहो जैसे धरोहर शहर में आयोजित यह शानदार प्रदर्शनी, दुनियाभर में प्रसिद्ध मंदिर की महिमा और भव्यता उजागर करती है और साथ-साथ आदिवासी और ग्रामीण जीवन शैली के रंग और रचनात्मकता को जानने का अवसर प्रदान करती है।

लोक नृत्य

भारत के किसी अन्य हिस्से की तरह मध्यप्रदेश भी देवी-देवताओं के समक्ष किए जानेवाले और विभिन्न अनुष्ठानों से संबंधित लोक नृत्यों द्वारा अपनी संस्कृती का एक परिपूर्ण दृश्य प्रदान करता है। लंबे समय से सभी पारंपरिक नृत्य, आस्था की एक पवित्र अभिव्यक्ति रहे है। मध्यप्रदेश पर्यटन विभाग और मध्यप्रदेश की आदिवासी लोक कला अकादमी द्वारा खजुराहो में आयोजित ‘लोकरंजन ' - एक वार्षिक नृत्य महोत्सव है, जो मध्यप्रदेश और भारत के अन्य भागों के लोकप्रिय लोक नृत्य और आदिवासी नृत्यों को पेश करने के लिए एक बेहतरीन मंच है।

 
जब बुंदेलखंड क्षेत्र का प्राकृतिक और सहज नृत्य मंच पर आता है, तब पूरा माहौल लहरा जाता है और देखने वाले मध्यप्रदेश की लय में बहने लगते है। मृदंग वादक ढोलक पर थापों की गति बढाना शुरू करता है और नृत्य में भी गति आ जाती है। गद्य या काव्य संवादों से भरा यह नृत्य प्रदर्शन, ‘स्वांग' के नाम से मशहूर है। संगीत साधनों के साथ माधुर्य और संगीत से भरे नर्तक के सुंदर लोकनृत्य का यह अद्वितीय संकलन है। बढ़ती धड़कन के साथ गति बढ़ती जाती है और नर्तकों के लहराते शरीर, दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर देते हैं। यह नृत्य विशेष रूप से किसी मौसम या अवसर के लिए नहीं है, लेकिन इसे आनंद और मनोरंजन की एक कला माना जाता है।

बाघेलखंड का ‘रे' नृत्य, ढोलक और नगारे जैसे संगीत वाद्ययंत्र की संगत के साथ महिला के वेश में पुरूष पेश करते है। वैश्य समुदाय में, विशेष रूप से बच्चे के जन्म के अवसर पर, बाघेलखंड के अहीर समुदाय की महिलाएं यह नृत्य करती है। इस नृत्य में अपने पारंपरिक पोशाक और गहनों को पहने नर्तकियां शुभ अवसर की भावना व्यक्त करती है|

 
मटकी

‘मटकी' मालवा का एक समुदाय नृत्य है, जिसे महिलाएं विभिन्न अवसरों पर पेश करती है। इस नृत्य में नर्तकियां ढोल की ताल पर नृत्य करती है, इस ढोल को स्थानीय स्तर पर ‘मटकी' कहा जाता है। स्थानीय स्तर पर झेला कहलाने वाली अकेली महिला, इसे शुरू करती है, जिसमे अन्य नर्तकियां अपने पारंपरिक मालवी कपड़े पहने और चेहरे पर घूंघट ओढे शामिल हो जाती है। उनके हाथो के सुंदर आंदोलन और झुमते कदम, एक आश्चर्यजनक प्रभाव पैदा कर देते हैं।

 
गणगौर

यह नृत्य मुख्य रूप से गणगौर त्योहार के नौ दिनों के दौरान किया जाता है। इस त्योहार के अनुष्ठानों के साथ कई नृत्य और गीत जुडे हुए है। यह नृत्य, निमाड़ क्षेत्र में गणगौर के अवसर पर उनके देवता राणुबाई और धनियार सूर्यदेव के सम्मान में की जानेवाली भक्ति का एक रूप है।

 
बधाईं

बुंदेलखंड क्षेत्र में जन्म, विवाह और त्योहारों के अवसरों पर ‘बधाईं' लोकप्रिय है। इसमें संगीत वाद्ययंत्र की धुनों पर पुरुष और महिलाएं सभी, ज़ोर-शोर से नृत्य करते हैं। नर्तकों की कोमल और कलाबाज़ हरकतें और उनके रंगीन पोशाक दर्शकों को चकित कर देते है।

 
बरेडी

दिवाली के त्योहार से पूर्णिमा के दिन तक की अवधि के दौरान बरेडी नृत्य किया जाता है। मध्यप्रदेश के इस सबसे आश्चर्यजनक नृत्य प्रदर्शन में, एक पुरुष कलाकार की प्रमुखता में, रंगीन कपड़े पहने 8-10 युवा पुरुषों का एक समूह नृत्य करता हैं। आमतौर पर, ‘दीवारी' नामक दो पंक्तियों की भक्ति कविता से इस नृत्य प्रदर्शन की शुरूवात होती है।

 
नौराता

मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में अविवाहित लड़कियों के लिए इस नृत्य का विशेष महत्त्व है। नौराता नृत्य के जरीये, बिनब्याही लडकियां एक अच्छा पति और वैवाहिक आनंद की मांग करते हुए भगवान का आह्वान करती है। नवरात्रि उत्सव के दौरान नौ दिन, घर के बाहर चूने और विभिन्न रंगों से नौराता की रंगोली बनाई जाती है।

 
अहिराई

भरम, सेटम, सैला और अहिराई, मध्यप्रदेश की ‘भारीयां' जनजाति के प्रमुख पारंपरिक नृत्य हैं। भारीयां जनजाति का सबसे लोकप्रिय नृत्य, विवाह के अवसर पर किया जाता है। इस समूह नृत्य प्रदर्शन के लिए ढोल और टिमकी (पीतल धातु की थाली की एक जोड़ी) इन दो संगीत उपकरणों का इस्तेमाल किया जाता हैं। ढोल और टिमकी बजाते हुए वादक गोलाकार में घुमते है, ढोल और टिमकी की बढती ध्वनी के साथ नर्तकों के हाथ और कदम भी तेजी से घुमते है और बढती-चढती धून के साथ यह समूह एक चरमोत्कर्ष तक पहुँचता है। संक्षिप्त विराम के बाद , कलाकार दुबारा मनोरंजन जारी रखते है और रात भर नृत्य चलता रहता है।

 
भगोरियां

विलक्षण लय वाले दशहरा और डांडरियां नृत्य के माध्यम से मध्यप्रदेश की बैगा आदिवासी जनजाति की सांस्कृतिक पहचान होती है। बैगा के पारंपरिक लोक गीतों और नृत्य के साथ दशहरा त्योहार की उल्लासभरी शुरुआत होती है। दशहरा त्योहार के अवसर पर बैगा समुदाय के विवाहयोग्य पुरुष एक गांव से दूसरे गांव जाते हैं, जहां दूसरे गांव की युवा लड़कियां अपने गायन और डांडरीयां नृत्य के साथ उनका परंपरागत तरीके से स्वागत करती है। यह एक दिलचस्प रिवाज है, जिससे बैगा लड़की अपनी पसंद के युवा पुरुष का चयन कर उससे शादी की अनुमति देती है। इसमें शामिल गीत और नृत्य, इस रिवाज द्वारा प्रेरित होते हैं। माहौल खिल उठता है और सारी परेशानियों से दूर, अपने ही ताल में बह जाता है। परधौनी, बैगा समुदाय का एक और लोकप्रिय नृत्य है। यह नृत्य मुख्य रूप से दूल्हे की पार्टी का स्वागत और मनोरंजन करने के लिए करते हैं। इसके द्वारा खुशी और शुभ अवसर की भावना व्यक्त होती है। कर्मा और सैली (गोंड), भगोरियां (भिल), लेहंगी (सहारियां) और थाप्ती (कोरकू) यह कुछ अन्य जानेमाने आदिवासी नृत्य है।

लोक गीत
 

किसी भी देश का इतिहास, वहां के लोकप्रिय गीतों के द्वारा बताया जाता है। पारंपरिक संगीत के चाहने वालों के लिए मध्यप्रदेश बेहतरीन दावते प्रदान करता है। यह लोक गीत, गायन की विशिष्ट शैली के द्वारा बलिदान, प्यार, कर्तव्य और वीरता की कहानियां सुनाते हैं। मूल रूप से राजस्थान के ‘ढोला मारू' लोकगीत, मालवा, निमाड़ और बुंदेलखंड क्षेत्र में लोकप्रिय है और इन क्षेत्रों के लोग अपनी विशिष्ट लोक शैली में प्यार, जुदाई और पुनर्मिलन के ढोला मारू गीत गाते है।

मध्यप्रदेश के निमाड़ क्षेत्र में हर अवसर पर, यहां तक कि मौत पर भी महिलाओं को लोक गीत गाते देखना, कोई आशचर्य वाली बात नही है। लोक गायन का एक रूप ‘कलगीतुर्रा', मंडला, मालवा, बुंदेलखंड और निमाड़ क्षेत्रों में लोकप्रिय है, जो चांग और डफ की धून के साथ प्रतियोगिता की भावना में जोश भरता है। इसमे महाभारत और पुराणों से लेकर वर्तमान मामलों पर आधारित गाने शामिल होते हैं और एक दूसरे को चतुराई से मात देने की कोशिशे रात भर चलती है। इस पारंपरिक गायकी का मूल, चंदेरी राजा शिशुपाल के शासनकाल मे पाया गया है। निमाड़ क्षेत्र में ‘निर्गुनी' शैली के नाम से लोकप्रिय इस गायकी में सिंगजी, कबीर, मीरा, दादू जैसे संतों द्वारा रचित गीत गाये जाते हैं। इस गायन में आम तौर पर इकतारा और खरताल (लकडी से जुडे छोटे धातु पटल वाला एक संगीत उपकरण) इन साजों का साथ होता है। निमाड़ में लोकगायन का एक अन्य बहुत लोकप्रिय रूप है ‘फाग', जो होली के त्योहार के दौरान डफ और चांग के साथ गाया जाता है। यह गीत प्रेमपूर्ण उत्साह से भरपूर होते है। निमाड़ में नवरात्रि का त्योहार, लोकप्रिय लोक-नृत्य गरबा के साथ मनाया जाता है। गरबा गीत के साथ गरबा नृत्य, देवी शक्ति को समर्पित होता है। पारंपरिक रूप से गरबा पुरुषों द्वारा किया जाता है और यह निमाड़ी लोक-नृत्य और नाटक का एक अभिन्न हिस्सा है। गायन को मृदंग (ढोल एक रूप) का साथ होता है। रासलीला के दौरान यह गौलन गीत गाए जाते हैं। मालवा क्षेत्र के नाथ समुदाय के बीच भर्तृहरी लोक-कथा के प्रवचन सबसे लोकप्रिय गायन फार्म है। चिंकारा नामक (सारंगी का एक रूप, जो घोड़े के बाल से बने तारों वाला वाद्य होता है, मुख्य शरीर बांस से बना होता है और नारियल खोल से धनुष बनाया जाता हैं) स्थानीय साज के साथ महान राजा भर्तृहरी और कबीर, मीरा, गोरख और गोपीचंद जैसे संतों द्वारा रचित भजन गाए जाते है। इससे एक अद्वितीय ध्वनि निकलती है।
 
मालवा क्षेत्र में युवा लड़कियों के समूह द्वारा गाये जाने वाले गीत, लोक संगीत का एक पारंपरिक मधुर और लुभावना फॉर्म है। समृद्धि और खुशी का आह्वान करने हेतु लड़कियां गाय के गोबर से संजा की मूरत बनाती है और उसे पत्ती और फूलों के साथ सजाती है तथा शाम के दौरान संजा की पूजा करती है। 18 दिन बाद, अपने साथी संजा को विदाई देते हुए यह उत्सव समाप्त होता है। मानसून की बारिश प्यासी पृथ्वी की प्यास बुझाती है, है, पेड़ो पर झुले सजते हैं और ऐसे में मालवा क्षेत्र के गीत सुनना मन को बेहद भाता है। हिड गायन में कलाकार पूर्ण गले की आवाज के साथ और शास्त्रीय शैली में आलाप लेकर गाते हैं। मालवा क्षेत्र में मानसून के मौसम के दौरान ‘बरसाती बरता' नामक गायन आमतौर पर होता है। बुंदेलखंड क्षेत्र योद्धाओं की भूमि है। अपने योद्धाओं को प्रेरित करने हेतु बुंदेलखंड के अलहैत समुदाय ने अल्लाह उदुल के वीर कर्मो से भरे गीतों की रचना की। 52 युद्ध लड़नेवाले अल्लाह उदुल की बहादुरी, सम्मान, वीरता और शौर्य के किस्से, इस क्षेत्र के लोग बरसात के मौसम के दौरान परंपरागत रूप से प्रदर्शित करते हैं। इसे ढोलक (छोटा ढोल, जिसे दोनो तरफ से हाथ के साथ बजाया जाता है) और नगारे (लोहा, तांबा जैसे धातु के दो ढोल, खोखले बर्तन के खुले चेहरे पर तानकर फैली भैंस की त्वचा जो पारंपरिक तरिके से लकड़िया से पीटा जाता है) के साथ गाया जाता है।
 
होली, ठाकुर, इसुरी और राय फाग उत्सव से संबंधित गाने भी होते हैं। दिवाली के त्योहार के अवसर पर ढोलक, नगारा और बांसुरी की धुन के साथ देवरी गीत गाए जाते हैं। शिवरात्री, बसंत पंचमी और मकर संक्रांति के त्योहार के मौकों पर बुंबुलिया गीत गाए जाते हैं। बाघेलखंड क्षेत्र के लोक-गीतों की गायन शैली मध्यप्रदेश के अन्य क्षेत्रों से अलग है। इसमे पुरुष और महिला, दोनों की आवाज मजबूत और शक्तिशाली होती हैं। इन गानों में समृद्धि और विविधता होती है, जो इस क्षेत्र की संस्कृति और विरासत को दर्शाते है। गीतों के विषय में काफी विविधता होती है और उनमे विभिन्न विषय शामिल होते है। बासदेव, बाघेलखंड क्षेत्र के गायकों का पारंपरिक समुदाय है, जो सारंगी और चुटकी पैंजन के साथ, पौराणिक बेटे श्रवण कुमार से जुडे गीत गाता है। पीले वस्त्र और सिर पर भगवान कृष्ण की मूर्ति से उनकी पहचान होती हैं। गायकों की जोड़ी यह गीत गाती है। रामायण तथा कर्ण, मोरध्वज, गोपचंद, भर्तृहरी, भोलेबाबा की कहानियां, बासदेव के गीतों के अन्य विषय है। गायकों की मनोवस्था दर्शाती, बिरहा और बिदेसीयां, बाघेलखंड की गायकी की दो अन्य महत्वपूर्ण शैलियां है। बिदेसीयां गीत प्यार, जुदाई और प्रेमी के साथ पुनर्मिलन के विषय से संबंधित होते है। बिदेसीयां गीत, प्यार करनेवाले से जल्दी लौटने की गुज़ारिश करता है। होली के त्योहार पर गाए जानेवाले ‘फाग' गीत, बसंत मौसम और व्यक्तिगत संबंधों की अभिव्यक्ति करते हैं। नगारा जोर-शोर से बजता है और गाने वाले उस धून पर सवार हो जाते हैं।
प्राचीन काल की जानीमानी हस्तियां
  • तानसेन: भारतीय शास्त्रीय संगीत के एक प्रतिपादक थे। वे ग्वालियर से थे, तथा राजा अकबर के दरबार के नवरत्नों में शामिल थे।
  • राजा छत्रसाल: राजा छत्रसाल ने आधी सदी से अधिक समय तक निरंतर संघर्ष किया और अंत में मुगल सत्ता से बुंदेलखंड को मुक्त किया।
  • रानी अहिल्या बाई: महेश्वर की महारानी, एक समाज सुधारक और विख्यात प्रशासक, जो सुंदर घाटों के निर्माण के लिए प्रसिद्ध है।
  • रानी दुर्गावती: मंडला की चंदेल राजकुमारी, जिनका विवाह गोंडवाना के राजा दलपत शाह के साथ हुआ। बुद्धि और दूरदर्शिता के साथ 16 सालों तक गोंडवाना पर शासन किया। सुंदरता, साहस और बहादुरी के लिए उन्हे श्रद्धांजलि अर्पित की जाती है।
  • रानी लक्ष्मी बाई: 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान झांसी की रानी ने अंग्रेजों के खिलाफ ग्वालियर में महत्वपूर्ण और अंतिम लड़ाई लड़ी थी। ग्वालियर के किले पर लड़ते हुए उनकी मृत्यु हो गई।
  • चन्द्र शेखर आजाद: झाबुआ में जन्मे चन्द्र शेखर आजाद, ब्रिटिश सरकार के खिलाफ क्रांतिकारी गतिविधियों का एक प्रतीक थे तथा 1926 और 1931 के बीच हुई हर क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय रूप में शामिल थे।
  • तांत्या भील: 1857 की महान क्रांति के बाद, पश्चिम निमर के तांत्या भील, ब्रिटिश राज से आजादी के लिए लड़ाई का प्रतीक बने।
  • पंडित रवि शंकर शुक्ला: अविभाजित मध्यप्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री।
  • शंकर दयाल शर्मा: भारत के नौवें राष्ट्रपति, एक विद्वान और शिक्षाशास्त्री।
  • विजया राजे सिंधिया: ग्वालियर के सिंधिया राजघराने की महारानी, जानीमानी राजनीतिक नेता और सामाजिक कार्यकर्ता।
  • कुशाभाऊ ठाकरे: सिद्धांतों पर चलनेवाले एक उत्साही सामाजिक सुधारवादी और मध्यप्रदेश के राजनीतिक नेताओं के बीच एक राजनीतिज्ञ हस्ती।
  • उस्ताद अलाउद्दीन खान: शास्त्रीय संगीत के कलाकार और हर समय के बेहतरीन कलाकार के रूप में प्रतिष्ठित । मैहर में बसे एक सरोद वादक और महान गुरु।
  • कृष्ण राव पंडित: गायक, ग्वालियर घराने की गायकी के प्रतिनिधि।
  • उस्ताद अमीर खान: इंदौर की प्रख्यात खयाल गायकी के गायक।
  • भवानी प्रसाद मिश्र: राष्ट्रीय कवि और होशंगाबाद के गांधीवादी दार्शनिक।
  • डी. जे. जोशी: इंदौर के महान आधुनिक चित्रकार।
  • बाल कृष्ण शर्मा 'नवीन': शाजापुर के स्वतंत्रता सेनानी, अनुभवी संपादक और कवि।
  • डॉ. शिव मंगल सिंह सुमन: उज्जैन के प्रख्यात शिक्षाविद्, प्रगतिशील कवि।
  • डॉ. विष्णु श्रीधर वाकणकर: उज्जैन के प्रसिद्ध पुरातत्वविद्, कला गुरू।
  • पंडित माखनलाल चतुर्वेदी: खंडवा के प्रमुख स्वतंत्रता सेनानियों में से एक, राष्ट्रीय कवि।
  • कुमार गंधर्व: देवास के खयाल गायकी के प्रख्यात गायक, शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में नवाचारों के लिए जाने जाते है।
  • अब्दुल लतीफ खान: भोपाल के सारंगी वादक।
सदियों पुरानी कला और संस्कृति

मध्यप्रदेश की भूमि, संस्कृति और कला गुणों से सराबोर है। यहाँ की राजसी परंपराओं ने लंबे समय तक कला, संगीत, साहित्य, वास्तुकला, दर्शन, चित्रों और ऐसे कई क्षेत्रों में उत्कर्ष किया है। शानदार मंदिर, भव्य महल, कालिदास, भर्तृहरी, बिहारी जैसे महान कवि, तानसेन, बैजू बावरा जैसी संगीत क्षेत्र की जानी-मानी हस्तियां, विक्रमादित्य, राजा भोज, रानी दुर्गावती और अहिल्या बाई जैसे राजनीतिज्ञ और ऐसे कई महानुभाव, मध्यप्रदेश का गौरव रहे हैं। मध्यप्रदेश ने हमेशा अपनी समृद्ध विरासत को संजोह कर रखा है। संगीत और नृत्य की शास्त्रीय परंपरा, प्रथागत रूप से यहाँ मौजूद है। राज्य ने दुर्लभ कला के क्षेत्र में बेहतरीन योगदान दिया है। नाटककार सत्यदेव दुबे और हबीब तनवीर, डागर, असगरी बाई, अमजद अली खाँ जैसे विलक्षण संगीत विशेषज्ञों से, इस राज्य की पहचान बनी है। मध्यप्रदेश, देश में अपने मध्यवर्ती स्थान के साथ अपनी सांस्कृतिक समृद्धि के लिए भी भारत के दिल के रूप में जाना जाता है। यहां के चप्पे-चप्पे में, संगीत की विभिन्न और समृद्ध परंपराओं को विकसित किया गया है। ग्वालियर को भारतीय संगीत के महत्वपूर्ण केन्द्रों में से एक माना जाता है। मध्यप्रदेश तानसेन की संगीत भक्ति का स्थान है और ‘ध्रुपद' का भी जन्म स्थान है। ‘ख्याल' भी यही परिष्कृत हुआ। सबसे पुराना माधव संगीत स्कूल यहाँ स्थित है, जो सन 1918 में पंडित विष्णु नारायण भातखंडे के मार्गदर्शन में शुरू हुआ था। रूपमती और बाज बहादुर की प्रेम कहानियों में लथपथ मालवा ने संगीत के चाहने वालों को सदा प्रेरित किया है। पंडित रविशंकर और उस्ताद अली अकबर खाँ उनके चेलों में शामिल हैं। मृदंगाचार्य नाना साहेब पानसे से लेकर डागर भाइयों जैसे कई महान संगीतकार इस भूमि से है। उस्ताद आमीर खाँ और कुमार गंधर्व भी इसी भूमि के सुपुत्र हैं। उस्ताद अलाउद्दीन खाँ ने भारतीय संगीत को जो भी दिया है, वह अपने आप में इतिहास है। अन्य कलाओं की तरह चित्रकला भी मध्यप्रदेश के जीवन का एक हिस्सा रहा है। यहां ड्राइंग और पेंटिंग की एक पुरानी परंपरा है। डी. जे. जोशी, सैयद हैदर रजा, नारायण श्रीधर बेंद्रे, विष्णु भटनागर, मकबूल फिदा हुसैन, अमृत लाल वेगड और कल्याण प्रसाद शर्मा जैसे महान चित्रकार, मध्यप्रदेश की चित्रकला के कैनवास पर योगदान दे रहे हैं।

प्रचारक संस्थान
मध्यप्रदेश में संस्कृति और कला से संबंधित गतिविधियों के विकास, संरक्षण और अनुसंधान के लिए कई संगठन और संस्थाएं बनाई गई हैं।
 
कला परिषद

सन 1952 में इसकी स्थापना हुई। यह संगठन संगीत, नृत्य, नाटक और ललित कला के लिए एक अकादमी के रूप में काम कर रहा है।

 
साहित्य परिषद

1954 में स्थापित साहित्य परिषद, राज्य में हिन्दी साहित्य के संरक्षण और प्रोत्साहन के लिए रचनात्मक आलोचनात्मक साहित्य वार्ता और सम्मेलनों का आयोजन करती है।

 
उर्दू अकादमी

यह अकादमी सन 1976 से उर्दू साहित्य के संरक्षण और प्रोत्साहन हेतु गरीब उर्दू कवि और साहित्यिक समाजों को वित्तीय सहायता दे रही है। उर्दू किताबों के प्रकाशन और उर्दू पुस्तकों के पुस्तकालयों के लिए भी अकादमी वित्तीय मदद की व्यवस्था करती है।

 
भारत भवन

13 फरवरी, 1982 को भोपाल में स्थापित भारत भवन, साहित्यिक और मंच कलाकारों के बीच आपसी निकटता मजबूत करनेवाला एक बहुआयामी कला केंद्र है। शहरों, गांवों और जंगलों में पनपती, स्थायी महत्व की सबसे अच्छी कृतियों को आश्रय देना, भारत भवन का उद्देश्य है। भोपाल में ‘अपर लेक' के तट पर झुकी हुई चट्टानों पर भारत भवन स्थित है। इसकी वास्तुकला और रचना भी देखने लायक है। चार्ल्स कोर्रा इस इमारत के वास्तुकार है। भारत भवन के कक्षों में रूपांकर, वगर्थ, रंग मंडल, अनहद, आश्रम और निराला सृजन पीठ शामिल है।

 
कालिदास अकादमी

नृत्य और संगीत, कला प्रदर्शनियां, पारंपरिक नाटक, लोककला, लोकसंगीत और लोकनृत्य के प्रदर्शन से जुडे व्याख्यान, अनुसंधान, वार्ता तथा प्रशिक्षण आयोजित करना, इस अकादमी का उद्देश्य है। सन 1977 में इसकी स्थापना हुई। यह प्रकाशन और अनुसंधान का काम भी करती है।

 
उस्ताद अलाउद्दीन खाँ संगीत अकादमी

यह अकादमी अलाउद्दीन खाँ व्याख्यान श्रृंखला, दुर्लभ वाद्य विनोद, चक्रधर महोत्सव, कथ्थक प्रसंग, मैहर में अलाउद्दीन खान मेमोरियल संगीत समारोह और इंदौर में आमिर खाँ महोत्सव आदि कार्यक्रमों का आयोजन करती है।

 
लोक कला परिषद

जनजातीय कला और सांस्कृतिक परंपराओं का सर्वेक्षण और दस्तावेज़ों का रखरखाव, इस कला परिषद का काम और उद्देश्य है।

राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय पुरस्कार

मध्यप्रदेश सरकार के संस्कृति विभाग ने कला के विभिन्न रूपों के सम्मान हेतु कुछ राष्ट्रीय और राज्य स्तर के वार्षिक पुरस्कार स्थापित कर कला और साहित्य के क्षेत्र में नए राष्ट्रीय मानक बनाए हैं।

 
कबीर पुरस्कार

भारतीय काव्य के क्षेत्र में काव्य प्रतिभा का सम्मान करने के लिए वर्ष 1986-87 में यह पुरस्कार स्थापित किया गया। किसी भी भारतीय भाषा के कवि को इस पुरस्कार से सम्मानित किया जा सकता है। इस पुरस्कार की राशि रू.1,50,000/- है। अब तक कन्नड़, बांगला, पंजाबी, हिन्दी, मराठी और गुजराती भाषा के कवियों को यह सम्मान प्रदान किया गया है।

 
तानसेन पुरस्कार

वर्ष 1980 में तानसेन पुरस्कार स्थापित हुआ, जिसकी पुरस्कार राशि रू.1,00,000/- है। हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के लिए हर वर्ष ग्वालियर में, तानसेन समारोह के दौरान यह पुरस्कार प्रदान किया जाता है।

 
कालिदास पुरस्कार

वर्ष 1980-81 में यह पुरस्कार स्थापित हुआ। शास्त्रीय संगीत, शास्त्रीय नृत्य, नाटक और दृश्य कला के क्षेत्र के लिए निर्धारित इस पुरस्कार स्वरूप रु. 1,00,000/- की राशी और प्रशस्ति पत्र प्रदान किया जाता है।

 
तुलसी पुरस्कार

आदिवासी/लोक कला और पारंपरिक कला के सम्मान हेतु वर्ष 1983-84 में तुलसी पुरस्कार स्थापित किया गया। यह पुरस्कार नाटक के लिए दो बार और दृश्य कला के लिए एक बार, इस प्रकार 3 वर्ष की अवधि में बारी-बारी से दिया जाता है। प्राप्तकर्ता को पुरस्कार स्वरूप, रु. 1,00,000/- और प्रशस्ति पत्र प्रदान किया जाता है।

 
लता मंगेशकर पुरस्कार

सुगम संगीत के क्षेत्र में उत्कृष्टता के सम्मान के लिए वर्ष 1984-85 से लता मंगेशकर पुरस्कार शुरू कर दिया गया। किसी भी भाषा के गायक, वादक और संगीतकार को बारी बारी यह पुरस्कार प्रदान किया जाता है। इस पुरस्कार के तहत, प्राप्तकर्ता को रु. 1,00,000/- और प्रशंसा का प्रमाणपत्र दिया जाता है। आम तौर पर यह वार्षिक पुरस्कार 4 दिसंबर के दिन या इसके आस-पास, लता मंगेशकर के जन्मदिन पर इंदौर में प्रदान किया जाता है।

 
इकबाल सम्मान

उर्दू साहित्य में रचनात्मक लेखन के सम्मान के लिए वर्ष 1986-87 में यह सम्मान स्थापित किया गया। पुरस्कार स्वरूप प्राप्तकर्ता को रु. 1,00,000/- और प्रशस्ति पत्र प्रदान किया जाता है।

 
कुमार गंधर्व पुरस्कार

संगीत के क्षेत्र में युवाओं के बीच रचनात्मकता को प्रोत्साहित करने के लिए वर्ष 1992-93 में कुमार गंधर्व पुरस्कार स्थापित किया गया। शास्त्रीय, मुखर और वाद्य संगीत के क्षेत्र में, 25 से 45 वर्ष के बीच की उम्र के युवा कलाकारों को यह सम्मान दिया जाता है। इस पुरस्कार के तहत, प्राप्तकर्ता को रु. 51,000/- और प्रशस्ति पत्र दिया जाता है।

 
मैथिलीशरण गुप्त पुरस्कार

हिंदी कविता की रचनात्मक संरचना के क्षेत्र में उत्कृष्टता को सम्मानित करने के लिए वर्ष 1987-88 में रु. 1,00,000/- रुपयों की राशी का यह पुरस्कार स्थापित किया गया।

 
शरद जोशी सम्मान

साहित्य के अलावा लेखन के अन्य रुझानों से संबंधित लोगों को सम्मानित करने के लिए शरद जोशी पुरस्कार स्थापित किया गया। निबंध, संस्मरण, कोष, डायरी, पत्र और व्यंग्य लेखन के लिए यह पुरस्कार दिया जाता है। इस पुरस्कार के तहत, प्राप्तकर्ता को रु. 51,000/- और प्रशस्ति पत्र प्रदान किया जाता है।

 
शिखर सम्मान

साहित्य, संगीत, रंगमंच और दृश्य कला के क्षेत्र में उत्कृष्ट रचनात्मकता के लिए वर्ष 1980-81 में यह सम्मान स्थापित किया गया। हर वर्ष संगीत, नृत्य, नाटक और लोक कला के क्षेत्र से, एक कला को पुरस्कार के लिए चुना जाता है। दृश्य कला के लिए शिखर सम्मान आदिवासी और गैर आदिवासी, इन दोनों रूपों के लिए दिया जाता है। आम तौर पर, 3 वर्ष की अवधि में एक वर्ष, रूपांकर कला को चुना जाता है। साहित्य के क्षेत्र में केवल हिन्दी के लिए ही शिखर सम्मान दिया जाता है। प्रत्येक शिखर सम्मान की पुरस्कार राशि रु. 31,000/- है।

 
किशोर कुमार पुरस्कार

यह पुरस्कार वर्ष 1998 में स्थापित किया गया। हर वर्ष फिल्म निर्देशन, अभिनय, पटकथा लेखन और गीत लेखन के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य के लिए यह पुरस्कार प्रस्तुत किया जाता है। प्राप्तकर्ताओं को पुरस्कार (रु.1 लाख की राशि) प्रदान करने के लिए किशोर कुमार के जन्म स्थान, मध्यप्रदेश के खंडवा में, एक कार्यक्रम का आयोजन किया जाता है।

 
देवी अहिल्या बाई पुरस्कार

वर्ष 1997 में स्थापित देवी अहिल्या बाई पुरस्कार, आदिवासी लोक कला और पारंपरिक कला में उत्कृष्टता के लिए केवल महिला कलाकारों को प्रदान किया जाता है। इस पुरस्कार के तहत, प्राप्तकर्ता को रु. 1,00,000/- और प्रशंसा का प्रमाणपत्र दिया जाता है।

 
महात्मा गांधी पुरस्कार

गांधीवादी दर्शन के आधार पर सामाजिक उत्थान के क्षेत्र में कार्यरत संगठनों को यह पुरस्कार प्रदान किया जाता है। इसके प्राप्तकर्ता को रुपये 5 लाख और प्रशंसा का प्रमाण पत्र देकर सम्मानित किया जाता है।

हस्तशिल्प
 
टेराकोटा

एक साधारण पहिया और जादुई हाथ मिलकर निराकार मिट्टी को शानदार रूपों में ढाल देते है। टेराकोटा, जीवन की प्रतिरूप लगती, एक वास्तव और आकर्षक कला है, जिसमें विशाल हाथी, नाग, पंछी, घोड़े, देवताओं की पारंपरिक मूर्तियां और ऐसे कई आकार बनाए जाते है। कला की विविधता, प्रसार और महारत के कारण मध्यप्रदेश की टेराकोटा मिट्टी ने अपनी अनोखी पहचान बना ली है। यह कला समाज को, पुजा से जुडे कर्मकांडों के लिए उपयुक्त वस्तुओं के साथ अन्य उपयोगी वस्तुएं भी प्रदान करती हैं।

चित्र

चमकीले रंग, देहाती रचना और भावपूर्ण पेशकश के साथ मध्यप्रदेश के लोक-चित्र अपने सरल, धार्मिक लोगों के जीवन को दर्शाते है। इन लोक-चित्रों के द्वारा पूजा और उत्सव के भाव, दोहरी फिर भी प्रेरणादायी अभिव्यक्ति पाते है। बुंदेलखंड, गोंडवाना, निमर और मालवा के आकर्षक दीवार-चित्रों के माध्यम से इन चित्रों का करिष्मा फैला है। इन चित्रों में दैनिक जीवन की छवियाँ, गहरे विवरण के साथ अभिव्यक्त होती हैं।

 
कांच का काम

मध्यप्रदेश का कांच का काम अपने बेहतरीन राजसी रूप में उभर कर आता है। प्रकाशमान, चमकीली, देदीप्यमान, चमकदार और शानदार कांच का काम, बेहद खूबसूरत प्रतीत होता है। मध्यप्रदेश के कारीगरों के कुशल हाथों से बने मुस्कुराते कटोरे, चमचमाती कांच, जगमगाती प्लेटें और सजावटी क्रिस्टल, मानो किसी जीवीत कविता के समान मन को लुभाते है।

 
लकड़ी के शिल्प

मध्यप्रदेश के लकड़ी के शिल्पों द्वारा परिष्करण और जटिलता के सुघड चमत्कार सामने आते है। मध्यप्रदेश और आदिवासी क्षेत्रों के पारंपरिक लकड़ी शिल्प में छोटे जानवरों और मानव की मूर्तियों से लेकर फर्नीचर जैसी बड़ी, नक़्क़ाशीदार वस्तुओं तक, सब कुछ शामिल है। मछली, मुर्गा, तीर-कमान लिए योद्धा, मोर, घुड़सवार, हाथी, लकड़ी मे खुदे शेर के सिर जैसी प्रकृति और वास्तविक जीवन की छवियों के नक्काशीदार शिल्प, इस कला की सुंदरता और विशेषज्ञता की कहानी सुनाते है। स्थानीय रूप से उपलब्ध शीशम, सागौन, दुधी, साल, केदार और बांस की लकड़ी से विभिन्न आकार की उपयोगी और सजावटी कृतियां आकार लेती है। राज्य के आदिवासी क्षेत्र में लकड़ी के शिल्प बनाने की प्राचीन और समृद्ध परंपरा है। अपने घर, दरवाजे की कलात्मक चौखटें, दरवाजे, चौकीयां और संगीत वाद्ययंत्र के निर्माण के लिए मंडला क्षेत्र के गोंड और बैगा लकड़ी का उपयोग करते है। बैगा अब भी लकड़ी के मुखौटे का उपयोग करते है। गोंड और कोरकू के परंपरागत लकड़ी के दरवाजे और स्मृति राहतें तथा बरीहया जनजाति में शादी के खम्भें आकर्षक होते हैं। धार, झाबुआ और निमाड़ के भील-बहुल क्षेत्र में, "गाथा" अर्थात स्मृति स्तंभों के शिल्प बनाने की प्रथा है। पीसाई के पत्थरों के पात्र और अनाज को मापने की चौकियां लकड़ी से बनती हैं और उन पर खूबसूरती से खुदाई की जाती हैं। दरवाजों पर पशुओं, पक्षियों तथा विभिन्न पैटर्न की खूबसूरती से खुदी आकृतियाँ होती है, जबकि चाकू और कंघी पर बारीक नक्काशी दिखाई देती है। अलीराजपुर और झाबुआ, इन दो मुख्य केंद्रों में आदिवासी भील के लकड़ी के शिल्प देखने को मिलते हैं।

टोकरी और बांस

आसानी से उपलब्ध बांस की वजह से मध्यप्रदेश में टोकरी और चटाई की बुनाई, एक प्रमुख कला है। बालाघाट, सिवनी, छिंदवाड़ा और बैतूल के स्थानीय हाट (बाजार) में कई किस्म की टोकरीयां और बुनी हुई चटाईयां दिखाई देती है। बैतूल जिले में तूरी समुदाय के लोग 50 अलग अलग प्रकार की टोकरीयां बनाते है, जिनका उपयोग विभिन्न दैनिक जरूरतों और उत्सव के मौकों के दौरान औपचारिक प्रस्तुतियों के लिए किया जाता है। अलीराजपुर में बांस की खूबसूरती से बनी टोकरियाँ और खिड़कियां पाई जाती हैं। कुर्सी, मेज, लैंप और कई अन्य फर्नीचर के सामान बनाने के लिए बांस और बेंत का इस्तेमाल किया जाता है। बांस की बनी कई चीजें कला के संग्रह में शामिल होती है।

धातु शिल्प

मध्यप्रदेश में कई किस्म के धातु शिल्प बनाए जाते है। राज्य के कुशल कारीगरों नें धातु के अद्वितीय शिल्प बनाए है। शुरू मे धातु का प्रयोग बर्तन और आभूषण तक ही सीमित था, लेकिन बाद में कारीगरों ने अपने काम में बदलाव लाते हुए विविध स्थानीय श्रद्धेय देवता, मानव की मूर्तियां, पशु-पक्षियों और अन्य सजावटी वस्तुओं को भी शामिल कर लिया। अयोध्या को अपना मूल शहर बताने वाले टीकमगढ़ के स्वर्णकार, धातु की तार के उपयोग के विशेषज्ञ माने जाते है, जो हुक्का, गुडगुडा, खिचडी का बेला और पुलिया जैसे पारंपरिक बर्तन बनाने में कुशल होते है। वे पीतल, ब्रॉंझ, सफेद धातु और चांदी के लोक-गहने बनाते है और उन्हें चुन्नी, बेलचुडा, मटरमाला, बिछाऊ, करधोना, गजरा और ऐसे अन्य अलंकरणों के साथ सुशोभित करते है। सजावटी वस्तुओं में स्थानीय देवताओं की मूर्तीयों समेत हाथी, घोड़े, ठाकुरजी के सिंहासन, बैल, आभूषण के बक्सें, दरवाज़े के हैंडल, अखरोट कटर आदि शामिल हैं। टीकमगढ़ रथों और पहियों वाले पीतल के घोड़ों के लिए प्रसिद्ध है।

लौह शिल्प

लोहार कला की कहानी लगभग इस भूमि जितनी ही पुरानी है। कच्चे लोहे को भट्ठी में गर्म किया जाता है और फिर बार-बार ठोक कर उससे सजावट और उपयोगिता की वस्तुएं बनाई जाती है। मध्यप्रदेश के आदिवासी (लोहार) लोहे को शिल्प में ढाल देते है। लोहे के सजावटी दीये (दीपक), करामाती छोटे पंछी तथा जानवरों की पारंपरिक और समकालीन, दोनों तरह के शिल्प की दस्तकारी देखनेवालों को मोहित कर देती है। लोहारों के कुशल हाथों में लोहा सांकल (चेन), चिटकनी (लैच), छुरी (चाकू), कुल्हाड़ी और नाजुक गहनों के रूप लेता है। बदलते समय के साथ, आधुनिक समय के स्वाद के अनुरूप, इस कला में बदलाव आ रहे है। शिवपुरी जिले में करेरा, लोहे के कलात्मक और सुघड काम के लिए मशहूर है।

साँचे में ढली काग़ज़ की लुग्दी की चिजें

मध्यप्रदेश के भोपाल, उज्जैन, ग्वालियर और रतलाम क्षेत्रों से, विशेष रूप से नागवंशी समुदाय के कलाकारों को साँचे में ढली काग़ज़ की लुग्दी से देवताओं की मूर्तियां, पक्षियों की प्रतिकृतियां, पारंपरिक टोकरियाँ और अन्य सजावटी वस्तुएं बनाने की कला में महारत हासिल है।

 
पत्थर का काम

मध्यप्रदेश के आदिवासी कलाकारों के लिए पत्थर पर नक्काशी करना, आध्यात्मिक खोज की एक अभिव्यक्ति रही है। जाली तथा देवी देवताओं की, पक्षियों और जानवरों की मूर्तियों के साथ अलंकृत यह शिल्प, स्वर्गीय दृश्य का अनुभव देती है। स्थानीय रूप से उपलब्ध रेत पत्थर पर नक्काशी (जाली का काम) के लिए ग्वालियर प्रसिद्ध है। टीकमगढ़ के निकट ‘कारी' बहुरंगी संगमरमर के बर्तन बनाने के लिए प्रसिद्ध है। रतलाम में राजस्थान से विस्थापित शिल्पकार सफेद संगमरमर में धार्मिक मूर्तियां बनाते है। जबलपुर के भेडाघाट की दुकानें संगमरमर की मूर्तियों से सजी हुई है।

प्रमुख खरीदारी केन्द्र

मृगनयनी - सरकार द्वारा प्रायोजित एम्पोरियम की एक श्रृंखला तथा मध्यप्रदेश के ‘हस्तशिल्प एवं हथकरघा विकास निगम लिमिटेड' की एक इकाई है, जो मध्यप्रदेश के कुशल कारीगरों की कला-कृतियों का प्रदर्शन करती है। राज्य के प्रमुख शहरों में, मेट्रो शहरों तथा भारत के प्रमुख पर्यटन स्थलों में मृगनयनी के शोरूम द्वारा हस्तकला की वस्तुएं, धातु, टेराकोटा और मिट्टी के बर्तन, पेंटिंग, आभूषण और वस्त्र आदि की कई किस्में प्रदर्शित की जाती है और बेची जाती है। आप इंदौर में शंकर गंज से चमड़े के खिलौने, उज्जैन की स्थानीय दुकानों से कागज की लुगदी से बने कई तरह के पंछी, बैतूल और उज्जैन से बांस के उत्पाद, सीहोर जिले के बुधनी से लाख के खिलौने, इंदौर के देपालपूर से लाख की चूड़ियाँ, शिवपुरी में करेरा से लोहे की कलात्मक वस्तुएं, खजुराहो के स्थानीय दुकानों से आदिवासीयों द्वारा बनाई गई चीजें, टीकमगढ़ से आदिवासी आभूषण, जबलपुर से संगमरमर की कलाकृतियां, ग्वालियर से हस्तनिर्मित जूते, इंदौर से टाई एन्ड डाई प्रिंट और बाटिक, ग्वालियर से खादी ग्राम उद्योग द्वारा हस्तनिर्मित कागज, धार, इंदौर, उज्जैन और देवास से टेराकोटा शिल्प, भोपाल के ओल्ड सीटी क्षेत्र, अपमार्केट एम्पोरीया और न्यू मार्केट की दुकानों से चांदी के गहने, मोती-काम, कढ़ाई की हुई मखमली फैशनेबल पर्स जैसी पारंपरिक भोपाली कलात्मक वस्तुएं खरीद सकते है। हस्तशिल्प एवं हथकरघा विकास निगम द्वारा भोपाल, इंदौर, जबलपुर, पचमढ़ी और ग्वालियर में ‘शिल्प बाजार' का आयोजन भी किया जाता है।

टेक्सटाइल

मध्यप्रदेश के लोगों में रचनात्मक दृष्टि और कलात्मक कौशल को लेकर हमेशा से जुनून रहा है। कारीगरों की अद्भुत रचनाएं और कला के विविध रूप, मध्यप्रदेश में कई सदियों से अपना स्थान बनाए हुए है। लोहे का धातु, लकड़ी की उपलब्धता, पीतल की चमक, चमड़े की सरगर्मी, कागज की लुगदी जैसी सारी चीजें कारीगरों के हाथों में पिघल जाती हैं और आकर्षक रचना के साथ एक खुबसूरत रूप ले लेती है। चंदेरी, टसर, महेश्वर जैसी हाथ की बुनी साड़िया, टाई एन्ड डाई, बाटीक, आभूषण, धातु और चमड़े की कलात्मक चीजें, टेराकोटा, कांच और स्टोनवर्क जैसी चीजें कलात्मकता की एक सुंदर दुनिया बनाती है।

आलंकारिक आकृतियों के साथ हैन्ड ब्लॉक प्रिंटेड कपड़ा, मध्यप्रदेश की विशेषता रहा है। साड़ी, ओढनी, टेबल क्लॉथ, बेड कवर और अन्य कपडों पर इन छापों का मुद्रण किया जाता है। पारंपरिक प्रिंट मे तानवाला और तीन आयामी प्रभाव दिखाई देता है। बाग नदी के उच्च प्रति के तांबे से व्युत्पन्न समृद्धि और चमक, वनस्पतीजन्य और प्राकृतिक रंग प्रदान करती है। हल्दी से पीला रंग, अनार के छिलके से गुलाबी रंग और नील से नीला रंग मिल जाता है। रंग पूरी तरह से कपड़े में समा जाए, इसलिए राल, मोम और तेल का प्रयोग किया जाता है। मुद्रण ब्लॉक (छापे) सागौन की लकडी से बनते है, जिन पर पारंपरिक लकड़ी नक़्क़ाश जटिल डिजाइन बनाते हैं। राज्य के पश्चिमी भाग के साथ, मालवा और निमर क्षेत्र में ब्लॉक मुद्रण किया जाता है और अब बाघ क्षेत्र में भी पारंपरिक तथा चंदेरी और माहेश्वरी साड़ीयों पर मुद्रित ब्लॉक का अभिनव प्रयोग होने लगा है। भैरवगढ और इंदौर के ब्लॉक प्रिंट में अद्वितीय बाटीक काम दिखाई देता है। बाटीक की प्रक्रिया में मुलायम सूती कपड़े पर गर्म पिघला मोम डाला जाता है। कपड़े को विभिन्न ठंडे रंगों में डूबोया जाता है और कपड़े पर गर्म उबलता पानी डाला जाता है। परिणाम स्वरूप कपडे पर एक आकर्षक डिजाइन और पैटर्न बन जाता है।

 
साड़ियां चंदेरी

अभ्यासपूर्ण हाथ धीमी गती से कुशलता से चलते है। एक और सपना हकीकत बन जाता है। एक अति सुंदर साड़ी निखर आती है। चंदेरी के छोटे से मध्ययुगीन शहर ने न केवल सदियों से बुनाई की दुर्लभ कला की रक्षा की है, लेकिन साथ-साथ राजसी और आधुनिक, दोनों तरह की सोच वाली महिलाओं की अभिरूचि के अनुकूल नए रूपों और डिजाइनों को विकसित किया है। चंदेरी के बुनकरों द्वारा रेशम और कपास की बनी तथा अतीत में कुलीनता का संरक्षण करनेवाली यह साड़ियां मोहकता और वैभव का उमदा प्रतीक हैं। बुनकरों द्वारा बुनी गई डिजाइनर साड़ियां पारखी नजरों को लुभा रही है और विशेष अवसरों के लिए पसंदीदा बनी हुई है। इन साड़ियों पर बनी फल, फूल, पत्ते, और पक्षियों की रचना, प्रकृति की सुहानी याद दिलाती है। साड़ियों के चमकीले और अद्वितीय उत्कृष्ट रंग अपने द्वारा मानो प्रकृति की सुंदरता के प्रतिक प्रतीत होते है।

 
टसर

"अर्जुन", "सफा" और "साई" वृक्षों पर विशेष रूप से पाले गए कोश से प्राप्त ‘टसर' को गहरे पीले, सोने जैसे, शहद जैसे और क्रीम रंगों मे पाया जाता है। पवित्रता, सुंदरता और वैभव का प्रतीक मानी जानेवाली ‘टसर' साड़ी उत्सव के दौरान महिलाओं के लिए सबसे पसंदीदा विकल्प बनी रही है। बदलते समय के साथ ‘टसर' ने अपने परिवेश से रंग लेकर सवयं में बदलाव लाया है। भव्य और सुंदर ‘टसर' साड़ी, पारंपरिक तथा आधुनिक डिजाइनरों की भी पहली पसंद रही हैं।

 
माहेश्वरी

18 वीं सदी ने रानी अहिल्याबाई होलकर की प्रतिभा से प्रेरित कला के इस रूप को खिलते देखा। यह माहेश्वरी साड़ी, जरी से अलंकृत थी जिसमें रेशम और कपास का सुंदर मेल था। अपने सामर्थ्य और लचिलेपन के उत्कृष्ट संयोजन के कारण इसने दुनिया भर में प्रशंसक पाए है। "गुलदस्तां", "घुंघरू", "मयूर", "चान्द तारा" जैसे इस साड़ी की किस्मों के नाम भी अपने आप में कविता है। इसके रंग कोमलता से कानाफूसी करते है। आकर्षकता और दीप्ति, माहेश्वरी साड़ी साड़ी की पहचान हैं।

 
दरीयां और कालीन

हाथ से बुनी हुई दरीयां और कालीन, विभिन्न शैली की आकृतियों के साथ विषम रंग के मिश्रण में रंगी हुई होती हैं। हाथ से बुनी ज्यामितीय आकृतियों वाली मातहत रंग की दरीयों के लिए मंदसौर मशहूर है। सतना की चीर से बनी दरीयां, सीधी और शहडोल की ऊनी दरीयां तथा जोबत मे भीलों द्वारा बनाई जानेवाली पुंजा दरीयां भी मशहूर है। ग्वालियर के साथ मुरैना भी, फ़ारसी कालीन से लेकर सस्ती किस्मों के कालीन बुनाई का एक प्रमुख स्थान है।